Famous Poems Zahid Abrol in Hindi ! जाहिद अबरोल की कविताएँ हिंदी में 2023
विजय कुमार अबरोल (जाहिद अबरोल) (Famous Poems Zahid Abrol in Hindi) जिसे उनके उपनाम जाहिद अबरोल से जाना जाता है, वो एक भारतीय उर्दू कवि से अच्छे वाकिफ है । उन्होंने 12वीं सदी के सूफी कवि बाबा फरीद के श्लोकों और शब्दों का ‘पहली बार उर्दू में अनुवाद’ किया है और वह भी पद्य में. Famous Poems Zahid Abrol in Hindi
अबरोल का जन्म 20 दिसंबर 1950 को एक हिंदू खत्री परिवार में, मूल राज अबरोल और बिमला देवी के यहाँ चंबा, हिमाचल प्रदेश, भारत में हुआ था। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़, पंजाब (भारत) से भौतिकी में एमएससी किया। उन्होंने उर्दू शायरी के प्यार के लिए कॉलेज छोड़ने के बाद उर्दू को चुना। उन्होंने 1971 में उर्दू सीखना शुरू किया और अगले 15 वर्षों में अपने दो कविता संग्रहों के लेखक बन गए ।।
अंधा खुदा’ 1978 में प्रकाशित उनका पहला संग्रह था और उसके बाद 1986 में ‘एक साफ-हा पूर्णम’। उनका हालिया प्रकाशन काव्य अनुवादित संस्करण है – ‘फरीदनामा’ – मूल गुरुमुखी संस्करण, इसकी रोमन प्रतिलेख, पद्य में उर्दू अनुवाद को प्रदर्शित करता है। उर्दू और देवनागरी लिपियों में एक अच्छी तरह से उत्पादित मात्रा में और विशेषज्ञों से प्रशंसा प्राप्त की है। इस तरह उन्होंने शेख बाबा फरीद की कविता को तीनों भाषाओं में दी गई श्रद्धांजलि को पुन: प्रस्तुत किया है ।।Famous Poems Zahid Abrol in Hindi
नाम – विजय कुमार अबरोल
जन्म – 20 दिसंबर 1950
उपनाम – जाहिद अबरोल
स्थान – चम्बा, हिमाचल प्रदेश, भारत
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जाहिद अबरोल की प्रसिद्धि कविता हिंदी में (Famous Poems Zahid Abrol in Hindi)
● हम्द /जाहिद अबरोल
● सहरा से जंगल में आकर छाँव में घुलती जाए धूप / ज़ाहिद अबरोल
● शोर की बाहों में गीतों का जिस्म पिघलते देखा है / ज़ाहिद अबरोल
● पढ़ के तू जिन को अकेले में हँसा करता है / ज़ाहिद अबरोल
● दरिया को पागल करने को अक्स-ऐ-समुंदर काफी था / जाहिद अबरोल
● जब एहसास की झील में हमने दर्द का कंकर फेंका है / ज़ाहिद अबरोल
● कौन किसी की जान पे यारो आफ़त बन कर आता है / ज़ाहिद अबरोल
● हर कोई इस सोच में गुम है कोई कहीं से आये तो / ज़ाहिद अबरोल
● सूरत-ए-शम’अ जले हैं लेकिन नाम मिला परवानों का / ज़ाहिद अबरोल
● आँख झपकते ही साजन ने जीवन का मुख मोड़ दिया / ज़ाहिद अबरोल
● इश्क़ का फूल तो सहरा में खिला करता है / ज़ाहिद अबरोल
◆ हम्द / ज़ाहिद अबरोल
रोज़-ए-अज़ल से रोज़-ए-अबद तक इंसाँ की तक़दीर
हो तुम हर तौक़ीर तुम्हारी बख़्शिश इल्म की हर तहरीर हो तुम
सहराओं में पानी हर बूँद तुम्हारी ही ने’मत
और दरिया में डूब रही कश्ती की हर तदबीर हो तुम
बच्चों की मुस्कान बुज़ुर्गों की शफ़क़त भी तुम से है
और जवाँ लोगों के सुनहरे ख़्वाबों की ता’बीर हो तुम
सूरज की सब धूप, धूप में आग तुम्हारे ही दम से
और दरख़्तों के साये में नींद की जू-ए-शीर भी तुम
इंसाँ से इंसाँ का रिश्ता गंग-ओ-जमन से ज़मज़म तक
इस रिश्ते को बाँधने वाली उल्फ़त की ज़ंजीर हो तुम
प्यास से मरने वालों का हर फ़ख़्र-ए-शहादत तुम से है
हक़ की ख़ातिर लड़ने वालों की हर इक शमशीर हो तुम
‘ज़ाहिद’ इन्सानों ने ये पंछी पिंजरे में ही रक्खा क़ैद
प्यार को जो अल्फ़ाज़ की वुस’अत दे वो आलमगीर हो तुम
◆ सहरा से जंगल में आकर छाँव में घुलती जाए धूप / ज़ाहिद अबरोल
सहरा से जंगल में आकर छाँव में घुलती जाए धूप
अपनी हद से आगे बढ़ कर अपना आप गँवाए धूप
दिन भर तो घर के आँगन में सपने बुनती रहती है
बैठ के साँझ की डोली में फिर देस पिया के जाए धूप
जो डसता है अक्सर उसको दूध पिलाया जाता है
कैसी बेहिस दुनिया है यह छाँव के ही गुन गाए धूप
तेरे शह्र में अबके रंगीं चश्मा पहन के आए हम
दिल डरता है फिर न कहीं इन आँखों को डस जाए धूप
रोज़ तुम्हारी याद का सूरज ख़ून के आँसू रोता है
रोज़ किसी शब की गदराई बाहों में खो जाए धूप
जिन के ज़िह् मुक़्य्यद हैं और दिल के सब दरवाज़े बन्द
‘ज़ाहिद’ उन तारीक घरों तक कोई तो पहुँचाए धूप।।
◆ शोर की बाहों में गीतों का जिस्म पिघलते देखा है / ज़ाहिद अबरोल
शोर की बाहों में गीतों का जिस्म पिघलते देखा है
क्यूं ख़ामोश रहूं फूलों को आग में जलते देखा है
दौर-ए-मसर्रत में भी इस को गीत में ढलते देखा है
हम ने तेरे ग़म को अक्सर नींद में चलते देखा है
दिल को जैसे डसने लगे हैं इन्द्रधनुष के सातों रंग
जब से हम ने तेरी हंसी को दर्द में ढलते देखा है
बादल, आंसू, प्यास, धुआं, अंगारा, शबनम, साया, धूप
तेरे ग़म को जाने क्या क्या भेस बदलते देखा है
हमने कहना छोड़ दिया है पैसे को अब हाथ की मैल
अज़्म-ए-बशर को जब से इसकी लौ में पिघलते देखा है
‘ज़ाहिद’ इस हठयोगी दिल को हमने अक्सर सुबह-ओ-शाम
नंगे पांव ही दर्द के अंगारों पर चलते देखा है
◆ पढ़ के तू जिन को अकेले में हँसा करता है / ज़ाहिद अबरोल
पढ़ के तू जिन को अकेले में हंसा करता है
ऐसे ख़त मैं ही नहीं, तू भी लिखा करता है
यूं भी रखता है यह दिल तेरी मुहब्बत का लिहाज़
जो भी करना हो गिला, ख़ुद से किया करता है
अजनबी मैं तुझे समझूं तू मुझे ग़ैर कहे
ऐसे माहौल में तू मुझसे मिला करता है
मैं कि बरसों तुझे सूरत न दिखाऊँ अपनी
तू कि हर शाम मिरे साथ हुआ करता है
तू मिरी क़ैद में है, मैं भी तिरी कै़द में हूँ
देखें अब कौन किसे पहले रिहा करता है
दिल में यूं छुप गईं रिश्तों की दरारें “ज़ाहिद”
रंग चेहरे का वही है जो हुआ करता है ।।
◆ दरिया को पागल करने को अक्स-ऐ-समुंदर काफी था
दरिया को पागल करने को अक्स-ए-समुन्दर काफ़ी था
ख़्वाब में और जुनूँ भरने को ज़िह्न-ए-सुख़नवर काफ़ी था
झुकने को तैयार था लेकिन जिस्म ने मुझको रोक दिया
अपनी अना ज़िन्दा रखने का जो बोझ सर पर काफ़ी था
अपने-अपने वक़्त पे सारे दुनिया जीतने निकले थे
शाह थे वो कि फ़क़ीर सभी का लोगों में डर काफ़ी था
दुनिया को दरकार नहीं था अज़्म सिकन्दर जैसों का
बुद्ध ,मुहम्मद,ईसा, नानक-सा इक रहबर काफ़ी था
तीन बनाए ताकि वो इक दूजे पर धर पायें इल्ज़ाम
वरना गूँगा, बहरा, अन्धा, एक ही बन्दर काफ़ी था
ग़म दुख दर्द,मुसीबत, ग़ुर्बत सारे यकदम टूट पड़े
इस नाज़ुक़ से दिल के लिए तो एक सितमगर काफ़ी था
‘ज़ाहिद’ बारिश-ए-संग गिराँ और ख़्वाबों के ये शीश महल
इन के लिए तो ग़फ़लत का इक नन्हा पत्थर काफ़ी था
जब एहसास की झील में हमने दर्द का कंकर फेंका है / ज़ाहिद अबरोल
जब एह्सास की झील में हमने दर्द का कंकर फेंका है
इक दिलकश से गीत का मंज़र तह के ऊपर उभरा है
लोहे की दीवारों से महफ़ूज़ हैं इनके शीशमहल
तूने पगले! नाहक़ अपने हाथ में पत्थर पकड़ा है
जीना है तो फिर अपने एह्सास को घर में रखकर आ
यह सुच्चा मोती क्यूँ अपनी जेब में लेकर फिरता है
चाहूँ भी तो छुड़ा न सकूँगा ख़ुद को इसकी क़ैद से मैं
तेरे ग़म से मेरा रिश्ता भूख और पेट का रिश्ता है
अपनी धूप को कब तक जोगन! छाँव से तू ढक पाएगी
तूने पराई धूप से माना ख़ुद को बचाकर रक्खा है
‘ज़ाहिद’! इस दुनिया में रहना तेरे बस की बात नहीं
तू तो पगले जनम जनम से सच्चे प्यार का भूखा है
कौन किसी की जान पे यारो आफ़त बन कर आता है / ज़ाहिद अबरोल
कौन किसी की जान पे यारो आफ़त बन कर आता है
अपनी करनी का साया इंसान को खाए जाता है
जिस्म की ज़ंजीरों से बड़ी हैं ज़िहन-ओ-दिल की ज़ंजीरें
क़ैद से बढ़ कर क़ैदी होने का एहसास सताता है
वो पागल है हम सब उसको पागल ही तो कहते हैं
फिर क्यूं उस की बातें सुन कर हर कोई डर जाता है
शुहरत और रुस्वाई दोनों एक ही कोख से जन्मी हैं
इन दोनों में आसानी से फ़र्क़ कहां मिल पाता है
मुझको बांध न पाया कोई मैं आज़ाद परिंदा हूं
धरती और आकाश से मेरा जनम- जनम का नाता है
जिसको गर्म तवे पर जलती रोटी का भी होश नहीं
उस मासूम से चेहरे को “ज़ाहिद” तू क्यूं याद आता है
हर कोई इस सोच में गुम है कोई कहीं से आये तो / ज़ाहिद अबरोल
हर कोई इस सोच में गुम है, कोई कहीं से आए तो
उस के सर का भारी पत्थर, अपने सर पे उठाए तो
हर ख़ुशबू में तेरी ख़ुशबू, हर इक ग़म तेरा ही ग़म
इक शाइर को इससे बेहतर, कोई सनद मिल जाए तो
उसका शौक़ था दरिया बन कर वो सहरा की बात करे
मेरी ज़िद थी सहरा में वो दरिया बन कर आए तो
विष की गागर सर पे उठाए, सब मुल्कों में घूम गया
भटके हुए इस बंजारे को कोई शिव” मिल जाए तो
“ज़ाहिद” वो मुझे दुश्मन समझे, यह दूरी सर आंखों पर
लेकिन मेरी ज़ात के हाथों, अपना आप छुड़ाए तो
सूरत-ए-शम’अ जले हैं लेकिन नाम मिला परवानों का / ज़ाहिद अबरोल
सूरत-ए-शम’अ जले हैं लेकिन नाम मिला परवानों का
सब की ज़बाँ पर आज है यारो! चर्चा हम दीवानों का
एक क़दम भी साथ हमारे चल न सके वो लोग जिन्हें
ज़िन्दादिली पर नाज़ था लेकिन फ़िक्र था अपनी जानों का
तुम सब लोग घरों में छुप कर बातें ही कर सकते हो
तुम क्या जानो किसने कितना ज़ुल्म सहा तूफ़ानों का
इक-इक करके सब दरवाज़े जिस दिन हम पर बन्द हुए
उस दिन सीना तान के रस्ता पूछा था मैख़ानों का
अपने क़लम को अपने ही हाथों से हमने तोड़ दिया
जिस दिन भूले से भी इसने रूप धरा मेहमानों का
शाम ढली तो दिल भर आया, रात हुई तो रो भी दिए
किसको सुनायें कौन सुनेगा क़िस्सा हम वीरानों का
‘ज़ाहिद’ तारीकी का वो आलम मौत जिसे सब कहते हैं
अस्ल में इक पैमान-ए-वफ़ा है हम जैसे दीवानों का ।।
आँख झपकते ही साजन ने जीवन का मुख मोड़ दिया / ज़ाहिद अबरोल
आंख झपकते ही साजन ने जीवन का मुख मोड़ दिया
किस आलम में हम को पकड़ा किस आलम में छोड़ दिया
अपने और पराये का क्या भेद हमें समझाते हो
अपना-पराया देखने वाली आंख को कब का फोड़ दिया
क्या ज्ञानी क्या अज्ञानी सब एक ही नाम को रटते हैं
जब भी उन का हाथ किसी ने बीच भंवर में छोड़ दिया
मेरी अना मेरी राहों में कांटे बन कर बिखरी है
जब भी मुझको नींद आई है इसने मुझे झंझोड़ दिया
लाख कहो दीवाना हमको अपना हठ नहीं छोड़ेंगे
दिल के टूटे जाम में हमने अपना ख़ून निचोड़ दिया
यास के बादल घेर चुके थे “ज़ाहिद” दिल की नगरी को
तेरी इक मुस्कान ने पगली उनका रुख़ भी मोड़ दिया
इश्क़ का फूल तो सहरा में खिला करता है / ज़ाहिद अबरोल
इश़्क का फूल तो सहरा में खिला करता है
एक इक ज़र्रा जहां रश्क-ओ-दुआ करता है
यह बुरा वक़्त ही नाज़िल हुआ सर पे वरना
अपने ख़्वाबों से भला कोई डरा करता है
ज़ख़्म पल भर का, दवा रोज़, दुआ बरसों तक
यूं इलाज-ए-ग़म-ए-महबूब हुआ करता है
दिल को सहरा दिया, आंखों को समुन्दर बख़्शा
शो’बदे ऐसे वो दमबाज़ किया करता है
ख़ुद को तन्हा न समझ, जाम उठा ले “ज़ाहिद”
ऐसा साथी तो मुक़द्दर से मिला करता है ।।
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